गाँव के वो पुराने दिन
अब जब भी गाँव की सीमा में प्रवेश करता हु तो मन पुरानी यादों में खो जाता है - जब अपना गाँव और उसके पहाड़ अलग हुआ करते थे; जब गाँव का रहन-सहन,खान-पान,क्रिया-कलाप वर्त्तमान से काफी अलग था; जब गाँव सही मायने में गाँव लगता था. अब काफी कुछ बदल चुका है, और वो पुरानी यादें बस यादें ही रह गयी है. गाँव का पुराना घर( खोड़कांण, कोरुवा) बचपन में गर्मियों की छुट्टियाँ आते ही बस गाँव की याद आती थी. गाँव के वो पहाड़; पुराने लकड़ी के बने हुए घर; उसमे रहने वाले भोले-भाले लोग; ठंडी ठंडी हवा; वो मिट्टी की खुशबू; खेत- खलियान और उसमे उगी हुई फसल अपनी ओर आकर्षित करती थी.उन दिनों गाँव आने के लिए गिनी चुनी बसों या छोटी गाडियों का सहारा लेना पड़ता था, जिनके जाने का निर्धारित समय होता था. उस समय जौनसार में कालसी से चकराता तक गेट सिस्टम हुआ करता था. सभी वाहन एक पंक्ति में खड़े रहते हुए,सीटी बजते ही,निर्धारित समयानुसार, अपने-अपने गन्तव्य के लिए एक साथ रवाना होते थे.गेट के खुलने का इंतज़ार करना भी अपने में अलग आनंद था. धीरे -धीरे लोगों की जरूरतें बढ़ने से यह व्यवस्था भी खत्म हो गयी और साथ ही साथ कालसी, साहिया और चकराता के